BREAKING
हरियाणा बीजेपी अध्यक्ष बडौली पर रेप केस; महिला गवाह ने कैमरे पर कहा- मैंने बडौली को होटल में नहीं देखा, मेरी सहेली दोस्त कहने लायक नहीं नागा साधुओं को नहीं दी जाती मुखाग्नि; फिर कैसे होता है इनका अंतिम संस्कार, जिंदा रहते ही अपना पिंडदान कर देते, महाकुंभ में हुजूम नागा साधु क्यों करते हैं 17 श्रृंगार; मोह-माया छोड़ने के बाद भी नागाओं के लिए ये क्यों जरूरी? कुंभ के बाद क्यों नहीं दिखाई देते? VIDEO अरे गजब! महाकुंभ में कचौड़ी की दुकान 92 लाख की; मेला क्षेत्र की सबसे महंगी दुकान, जमीन सिर्फ इतनी सी, कचौड़ी की एक प्लेट 40 रुपये Aaj Ka Panchang 15 January 2025: आज से शुरू माघ बिहू का पर्व, जानिए शुभ मुहूर्त और पढ़ें दैनिक पंचांग

राजनीति में आ ही गए 'किसान'

Editorial

'Farmers' have entered politics : राजनीति है ही ऐसी। अभी कुछ दिन पहले तक जिन किसान आंदोलनकारियों को देश ने दिल्ली के बॉर्डर पर सरकार विरोधी नारे लगाते देखा था, अब वही सरकार यानी सत्ता में आने के लिए एकजुट हो गए हैं। संयुक्त किसान मोर्चा के 32 में से 25 किसान संगठनों ने अब मिलकर संयुक्त समाज मोर्चा नाम से राजनीतिक संगठन की घोषणा की है।

यह संगठन पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनाव में उतरेगा और सभी 117 सीटों पर उतरेगा। अभी कुछ दिन पहले ही भारतीय किसान यूनियन के नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने भी अपने राजनीतिक संगठन की घोषणा की थी। वे भी पंजाब के चुनाव में उतरने जा रहे हैं। किसान आंदोलन में केंद्र सरकार को कदम पीछे हटाने को मजबूर करने से उत्साहित आंदोलनकारी नेताओं के ये राजनीतिक प्रयास सही हैं या नहीं, यह उनका व्यक्तिगत मसला है। क्योंकि अगर अब उन आंदोलनकारियों ने राजनीतिक स्वरूप हासिल करने की मंशा रखी है तो इस पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। देश के नागरिक के रूप में वे किसी राजनीतिक दल का समर्थन कर सकते हैं या फिर अपने खुद के राजनीतिक संगठन खड़ा कर सकते हैं।
 

 दरअसल, यह मामला इतना पाक-साफ है नहीं, जितना समझा जा रहा है। अगर संयुक्त समाज मोर्चा गठित करने वाले आंदोलनकारी किसानों का यह निर्णय इतना ही सही होता तो फिर संयुक्त किसान मोर्चा की को-आर्डिनेशन कमेटी के बाकी नेताओं को इस पर ऐतराज नहीं होना चाहिए था। इन नेताओं का कहना है कि उनका संयुक्त समाज मोर्चा से कोई संबंध नहीं है। उनका यह भी कहना है कि उनकी नीति है कि हमारे नाम और मंच का इस्तेमाल कोई राजनीतिक दल नहीं करेगा। वहीं मोर्चे के नाम का चुनाव में इस्तेमाल करना भी मोर्चे के अनुशासन का उल्लंघन होगा। गौरतलब यह भी है कि अगर राजनीतिक दल कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन चलाते तो ये कानून कभी वापस नहीं होने थे, इन कानूनों को केंद्र सरकार अगर वापस लेने को विवश हुई तो इसलिए क्योंकि इस आंदोलन को गैर राजनीतिक लोग संचालित कर रहे थे। यानी एक राजनीतिक दल में जो ताकत है, उससे कहीं ज्यादा ताकत एक गैर राजनीतिक संगठन में है। उस संगठन को प्रत्येक जन अपना समझता है, लेकिन अगर उसे किसी राजनीतिक दल का समर्थन या बैकअप हासिल हो जाएगा तो बहुत से लोग पीछे हट जाएंगे। ऐसे में किसान आंदोलनकारियों के द्वारा संयुक्त किसान मोर्चा को तिरोहित करके अपने राजनीतिक संगठन खड़े करना उनकी जनसेवा से ज्यादा राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को ज्यादा प्रकट रूप दे रहा है। यह तब है, जब संयुक्त समाज मोर्चा ने वरिष्ठ किसान आंदोलनकारी नेता बलबीर सिंह राजेवाल को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया है।

राजेवाल ने राजनीतिक संगठन बनाने के पीछे की मंशा को जाहिर करते हुए कहा है कि तीन कृषि कानून रद्द करवाने की लड़ाई के बाद उन पर भारी दबाव था। दबाव यह था कि समाज के विभिन्न वर्ग अब उनसे यह उम्मीद कर रहे हैं कि खराब हो चुके सिस्टम को बदलने के लिए किसान आगे आएं। बकौल राजेवाल, सिस्टम गंदा हो गया है, उसे बदलने की जरूरत है। हमें धनाढ्य लोगों की जरूरत नहीं है, केवल उस तरह के जुझारू कार्यकर्ता चाहिएं। इस बीच उनसे यह पूछा जाता है कि किसान आंदोलन के दौरान चुनाव न लडऩे संबंधी भी बात कही गई थी तो उनका स्पष्टीकरण था कि पहले वाला फैसला भी अपनी जगह ठीक था और अब जरूरत पड़ने पर जो फैसला बदला है, वह भी अपनी जगह ठीक है।
   

दरअसल, किसान आंदोलनकारी जो कि अब राजनेता में परिवर्तित हो गए हैं,   वह भाषा भी सीख गए हैं जोकि राजनीतिकों को ही फबती है। सिस्टम वास्तव में खराब हो गया है, इसमें किसी की दोराय नहीं होगी। लेकिन उस सिस्टम को राजनीति में आकर ही दुरुस्त किया जा सकता है, यह बात हजम नहीं होती। किसान आंदोलनकारियों ने अपने साल भर चले आंदोलन के दौरान बहुमत वाली सरकार को कदम पीछे खींचने को मजबूर किया है, क्या यही ताकत ये आंदोलनकारी से राजनेता परिवर्तित हुए किसान फिर जुटा पाएंगे? पंजाब में नशे समेत दूसरे अनेक मसले हैं, क्या किसान आंदोलनकारी अब राजनीति में उतरे बगैर इन मसलों के लिए संघर्ष नहीं कर सकते।

क्या इन मसलों के लिए वे सरकार को बातचीत की टेबल पर नहीं ला सकते? अगर वे गैर राजनीतिक रहते हुए अपने संगठन को मजबूत बनाए रखें और सरकार को वह करने को मजबूर करें जोकि वास्तव में होना चाहिए तो वे वह सम्मान बरकरार रख पाएंगे वहीं इसमें और इजाफा करेंगे। संभव है, किसान आंदोलनकारी नेताओं को आम आदमी पार्टी का मॉडल पसंद आया हो, जिसने इसी प्रकार आंदोलन की सफलता के बाद राजनीतिक रूप अपना लिया।  
 

किसान आंदोलनकारियों के राजनीतिक संगठन को व्यापक स्वीकार्यता मिलेगी, अगर वे जिन वादों, इरादों, मूल्यों की बात कर रहे हैं, उन्हें हकीकत में भी अमल में ला सके। हालांकि यह बहुत मुश्किल कार्य होगा। फिर भी पंजाब की जनता बेहतर तरीके से इसका निर्णय करेगी कि वह पहले से घोषित नेताओं पर भरोसा करती है या फिर अभी ताजा-ताजा आंदोलनकारियों का चोला उतार कर राजनेता बने लोगों पर।